K. R. Roy Production PDF - 1 |
उत्तर - मानव आहारनाल एक कुंडलित रचना है। यह मुखगुहा से शुरू होकर रेक्टम तक फैली होती है। आहारनाल का पहला भाग मुखगुहा कहलाता है। यह ऊपरी तथा निचले जबड़े से घिरी होती है। मुखगुहा को बंद करने के लिए दो मांसल होंठ होते है। मुखगुहा में जीभ तथा दाँत होते हैं। दाँत से भोजन चबाया जाता है और जीभ इसे निगलने में मदद करता है। मुखगुहा में तीन जोड़ी लार ग्रंथियाँ पैरोटिड, सबमैडिबुलर तथा सबलिंगुअल पाई जाती हैं। मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है। इसमें दो छिद्र निगलद्वार और कंठद्वार होते हैं। निगलद्वार आगे ग्रासनली में और कंठद्वार श्वासनली में खुलता है। कंठद्वार के आगे एक पट्टी जैसी रचना होती है, जो एपिग्लौटिस कहलाता है। निगलद्वार आगे एक लंबी रचना में खुलती है जिसे ग्रासनली कहते हैं। ग्रासनली आगे एक चौड़ी थैली जैसी रचना में खुलती है जिसे आमाशय कहते हैं। आमाशय में जठर ग्रंथि पाई जाती है। जठर ग्रंथि तीन प्रकार की कोशिकाओं श्लेष्मा, अम्लजन और जाइमोजिन का बना होता है। आमाशय एक छिद्र द्वारा एक बेलनाकार रचना में खुलती है जिसे छोटी आँत कहते हैं। यह तीन भागों ग्रहनी, जेजुनम और इलियम में बँटा होता है। छोटी आँत का अधिकांश भाग इलियम होता है। इलियम में रक्त कोशिकाओं का जाल बिछा होता है। उदर गुहा के ऊपर दाहिने भाग में स्थित एक ग्रंथि यकृत होता है। आमाशय के ठीक नीचे और ग्रहणी को घेरे पीले रंग की एक ग्रंथि अग्न्याशय होता है। छोटी आँत आगे एक रचना में खुलती है जिसे बड़ी आँत कहते हैं। यह दो भागों कोलन और मलाशय या रेक्टम में बँटा होता है। छोटी आँत और बड़ी आँत के जोड़ पर एक छोटी नली होती है जिसे सीकम कहते हैं।
उत्तर - मनुष्य में पाचन मुख से ही शुरू हो जाता है। मुंह में लिया गया भोजन में लार मिलने से वह मुलायम हो जाता है और उसे दांतों, जीभों और विभिन्न उपांगों की सहायता से छोटे-छोटे टुकड़े में बदल दिया जाता है। मुख में लार से सना हुआ भोजन ग्रासनली में पहुंचता है। यहां क्रमाकुंचन के कारण भोजन नीचे खिसकते जाता है और आमाशय में पहुंच जाता है । आमाशय में भोजन 3 से 4 घंटे तक रहता है। आमाशय के जठर ग्रंथि के अम्लजन कोशिका से निकली HCI अम्ल भोजन को अम्लीय बना देता है। जिससे टायलीन का प्रभाव समाप्त हो जाता है और निष्क्रिय पेप्सिनोजेन को पेप्सिन नामक एंजाइम में बदल देता है जो भोजन में मौजूद प्रोटीन को पेप्टोन में बदल देता है। अमाशय में प्रोटीन के अतिरिक्त वसा का भी आंशिक पाचन हो जाता है। अब भोजन अमाशय की पाइलोरिक छिद्र के द्वारा छोटी आँत में पहुंचता है। छोटी आँत में भोजन का पाचन पित्त की थैली से निकला पित्तरस, अग्नाशय से निकली अग्न्याशयी रस और छोटी आँत से निकली शक्कस एंटेरीकस रस के क्रिया से होता है। पचा हुआ भोजन छोटी आँत के ही एक भाग इलियम के विलाई द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है और विलाई में मौजूद रुधिर कोशिकाओं के रुधिर में मिल जाता है। इस तरह मनुष्य में पाचन की क्रिया पूर्ण हो जाती है।
उत्तर - वह जैव प्रक्रम जिसमें जीव अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भोज्य पदार्थों से पोषक तत्त्वों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है। जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों स्वपोषण और परपोषण द्वारा होता है - (i) स्वपोषण - इसमें सजीव भोजन के लिए किन्हीं अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित कर लेते हैं। इस विधि द्वारा पोषण करनेवाले जीवों को स्वपोषी कहते हैं। सभी हरे पौधे स्वपोषी होते हैं। (ii) परपोषण- इसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित न कर किसी-न-किसी रूप में अन्य स्रोतों से प्राप्त करते हैं। इस विधि द्वारा पोषण करनेवाले जीवों को परपोषी कहते हैं। सभी जंतु , जीवाणु एवं कवक परपोषी होते हैं। परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं- (क) मृतजीवी पोषण - इसमें जीव मृत जीवों के शरीर से अपना भोजन, अपने शरीर की सतह से, घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं। ऐसे जीवों को मृतजीवी या अपघटक भी कहते हैं। कवक एवं बैक्टीरिया आदि मृतजीवी होते हैं। (ख) परजीवी पोषण - इस प्रकार के पोषण में जीव दूसरे जीव के संपर्क में स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। भोजन प्राप्त करनेवाले जीव परजीवी एवं जिनके शरीर से परजीवी अपना भोजन प्राप्त करते हैं, उन्हें पोषी कहते हैं। अमरबेल, गोलकृमि आदि परजीवी होते हैं । (ग) प्राणिसम पोषण - इसमें जीव अपना भोजन ठोस या तरल रूप में ग्रहण करते हैं। ऐसे जीवों को प्राणिसमभोजी कहते हैं। अमीबा, मेढ़क, मनुष्य आदि प्राणिसमभोजी होते हैं।
उत्तरी अमीबा एक सरल प्राणिसमपोषी जीव है, जिसका भोजन शैवाल के छोटे-छोटे टुकड़े, बैक्टीरिया, छोटे-छोटे एककोशिक जीव तथा कार्बनिक पदार्थ है।
उत्तर -
या मानव में श्वसन कैसे होता है ? वर्णन करें।
उत्तर - मनुष्य में श्वसन क्रिया, प्रश्वास (inspiration) तथा उच्छ्वास (expiration) क्रियाओं का सम्मिलित रूप है। प्रश्वास-क्रिया में हवा नासिका से फेफड़े तक पहुँचती है जहाँ हवा में उपस्थित ऑक्सीजन फेफड़े की दीवार में स्थित रक्त केशिकाओं के रक्त में चला आता है। उच्छ्वास-क्रिया में रक्त से फेफड़े में आया कार्बन डाइऑक्साइड बची हवा के साथ नासिका से बाहर निकल जाता है। प्रश्वास के द्वारा वायुमंडलीय हवा नासिका तथा श्वासनली से होती हुई फेफड़ों की वायुकोष्ठिकाओं में पहुँच जाती है। वायुकोष्ठिकाओं के चारों ओर रक्त केशिकाओं का घना जाल होता है। वायुकोष्ठिकाओं में स्थित वायुमंडलीय हवा में करीब 21 प्रतिशत ऑक्सीजन होता है जबकि रक्त केशिकाओं में स्थित शिरीय रक्त (venous blood) में ऑक्सीजन की मात्रा अपेक्षाकृत बहुत कम होती है। इस कारण ऑक्सीजन का विसरण वायुकोष्ठकों से सीधे शिरीय रक्त में हो जाता है। यहाँ रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन से ऑक्सीजन संयोग कर ऑक्सीहीमोग्लोबिन नामक यौगिक बनाता है, जो रक्त परिसंचरण के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में स्थित कोशिकाओं तक पहुँच जाता है। यहाँ ऑक्सीहीमोग्लोबिन पुनः टूटकर हीमोग्लोबिन तथा ऑक्सीजन का निर्माण करता है। इस प्रकार ऑक्सीजन विभिन्न कोशिकाओं तक पहुँचता है। यह ऑक्सीजन कोशिकाओं में उपस्थित ग्लूकोस का ऑक्सीकरण कर कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऊर्जा का निर्माण करती है। कोशिकाओं में निर्मित कार्बन डाइऑक्साइड पुनः विसरण के द्वारा कोशिकाओं से रक्त केशिकाओं के रक्त में पहुँचता है। यहाँ यह रक्त के हीमोग्लोबिन से संयोग कर कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन का निर्माण करता है जो फेफड़ों में रक्त परिसंचरण के द्वारा पहुँचते हैं। फेफड़ों की शिरीय रक्त केशिकाओं में कार्बन डाइ-ऑक्साइड का आंशिक दबाव वायुकोष्ठकों की अपेक्षा काफी अधिक होता है। इस कारण, रक्त केशिकाओं से कार्बन डाइऑक्साइड का विसरण वायुकोष्ठिकाओं में हो जाता है, जहाँ से उच्छ्वास-क्रिया के द्वारा इसे श्वासनली तथा नासिका द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
उत्तर -
उत्तर - रुधिर (रक्त) एक तरल संयोजी ऊतक है, जो उच्च बहुकोशिकीय जंतुओं में एक तरल परिवहन माध्यम है, जिसके द्वारा शरीर के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पदार्थों का परिवहन होता है।
रक्त के दो प्रमुख संघटक है-
(i) प्लाज्मा एवं
(ii) रक्त कोशिकाएँ।
(i) प्लाज्मा - यह रक्त का द्रव घटक है, जिसमें करीब 90% जल, 7% प्रोटीन तथा शेष अन्य कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ विद्यमान होते हैं। इसमें उपस्थित प्रोटीन को प्लाज्मा प्रोटीन कहते हैं। ये रक्त को धक्का बनाने (blood clotting) में सहायक होते हैं।
(ii) रक्त कोशिकाएँ- ये तीन प्रकार की होती है।
(क) लाल रक्त कोशिकाएँ- इसमे हीमोग्लोबिन नामक प्रोटीन वर्णक पाया जाता है जिसके कारण इसका रंग लाल होता है। ये ऑक्सीजन को शरीर के सभी भागों में पहुँचाती है।
(ख) श्वेत रक्त कोशिकाएँ- इनमे हीमोग्लोबिन अनुपस्थित होता है जिसके कारण ये रंगहीन होती हैं। ये हानिकारक जीवाणुओं के भक्षण में सहायक होती हैं।
(ग) रक्त पट्टिकाणु - इन्हें विबाणु या थ्रोम्बोसाइट्स भी कहा जाता है। ये रक्त के थक्का बनने में सहायक होते हैं।
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या ह्रदय कैसे कार्य करता है ? वर्णन करें।
या मानव हृदय की कार्यविधि का वर्णन करें।
उत्तर - स्तनधारियों में, जिनमें मनुष्य भी शामिल है, चारकोष्ठीय हृदय होता है- दो अलिंद और दो निलय। शरीर के विभिन्न भागों से संग्रहित अशुद्ध (अनॉक्सीकृत) रक्त दो अग्र एवं एक पश्च महाशिरा के द्वारा दाहिने अलिंद में आता है तथा फेफड़ों से ऑक्सीकृत रक्त फुफ्फुसीय शिराओं द्वारा बाएँ अलिंद में आता है। अब साइनोएट्रियल नोड से सिकुड़न की लहर उठती है, जिससे दोनों अलिंद बारी-बारी से सिकुड़ते हैं और उनमें संचित रक्त क्रमशः दाएँ और बाएँ निलय में आ जाते हैं। अब सिकुड़न की लहर एंटेरियोवेंट्रीकुलर नोड से उठकर दोनों निलय को सिकोड़ती है जिससे दाएँ निलय का रक्त फुफ्फुसीय महाधमनी द्वारा फेफड़े को चला जाता है तथा वाएँ निलय में संचित शुद्ध रक्त महाधमनी होते हुए शरीर के विभिन्न भागों में चला जाता है।
उत्तर - नेफ्रॉन वृक्क की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई होती है। प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख नेफ्रॉन (nephron) पाए जाते हैं। प्रत्येक नेफ्रॉन में एक प्यालीनुमा संरचना होती है, जिसे बोमैन-संपुट कहते हैं। यह रचना एक केशिका-गुच्छ नामक रक्त केशिकाओं के जाल को घेरता है जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं। ग्लोमेरूलस एवं बोमैन-संपुट को सम्मिलित रूप से मैलपीगियन कोष (Malpighian capsule) कहते है। नेफ्रॉन के कार्य में एक समीपस्थ एवं दूरस्थ कुंडलित भाग होता है। समीपस्थ भाग नीचे आकर अवरोही चाप एवं प्रांतस्थ भाग में जाकर अधिरोही चाप बनाता है। अवरोही एवं अधिरोही चापों के बीच एक विशेष भाग हेनले का चाप अवस्थित होता है। अधिरोही चाप आगे की ओर एक संग्राहक नलिका में खुलता है। इस नलिका में अनेक अन्य वृक्क नलिकाएँ आकर खुलती है और सभी संग्राहक नलिकाएँ आपस में मिलकर सामान्य संग्राहक नली बनाती है, जो अंत में मूत्रवाहिनी में खुलती हैं।
या मानव वृक्क कैसे कार्य करता है ? वर्णन करें।
या मानव वृक्क के कार्यविधि का वर्णन करें।
उत्तर - वृक्क से मूत्र के रूप में उत्सर्जन निम्नलिखित तीन प्रक्रियाओं के द्वारा होता है। (1) ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन- यह एक भौतिक प्रक्रम है, जिसमें ग्लोमेरूलस की अपवाही धमनिका का व्यास अभिवाही धमनिका के व्यास से कम होने के कारण, ग्लोमेरूलस की रुधिर केशिकाओं में रुधिर बहुत दाब के साथ प्रवेश करता है। इस दाब के फलस्वरूप रुधिर प्लाज्मा, बौमेन्स कैप्स्यूल की भित्ति द्वारा छनकर इसके भीतर प्रवेश कर आता है। ग्लोमेरूलस में छनने की इस क्रिया को परानिस्यंदन (ultrafiltration) कहते हैं और छनित पदार्थ को ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट कहते हैं। (ii) ट्यूबुलर पुनरवशोषण- ज्योंही छनित (ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट) वृक्क नलिका में आता है, समीपस्थ कुंडलित नलिका की कोशिकाएँ, ग्लूकोस, सोडियम, पोटैशियम लवण, जल आदि पदार्थों को अवशोषित कर लेती है, एवं ये अवशोषित पदार्थ वृक्क नलिका के चारों ओर विद्यमान कोशिकाओं से होते हुए फिर वहाँ से सामान्य परिवहन में पहुँच जाते हैं। (iii) ट्यूबुलर स्रवण- समीपस्थ और दूरस्थ कुंडलित वृक्क नलिका की कोशिकाएँ कुछ अन्य पदार्थों को उत्सर्जी पदार्थ के रूप में स्रावित करती हैं, जो फिल्ट्रेट से मिल जाते हैं। इस प्रकार जब छनित द्रव दूरस्थ कुंडलित भाग में पहुँचता है, तब इसे मूत्र कहते है। यह मूत्र मूत्रनलिका से होते हुए मूत्राशय में जमा होता है, और समय-समय पर मूत्रमार्ग के छिद्र द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
उत्तर - डायलिसिस मशीन (dialysis machine) एक कृत्रिम वृक्क की तरह कार्य करता है, अतः डायलिसिस मशीन एक कृत्रिम वृक्क है। इस मशीन में एक टंकी होती है, जिसे डायलाइजर कहते हैं। डायलाइजर में डायलिसिस फ्लूइड (dialysis fluid) नामक तरल पदार्थ भरा होता है। इस तरल पदार्थ में सेलोफेन से बनी बेलनाकार रचना लटकती है, जो आंशिक रूप से पारगम्य होती है, तथा यह केवल विलेय (solute) को ही विसरित होने देती है। डायलिसिस फ्लूइड की सांद्रता ऊतक द्रव जैसी होती है, लेकिन इसमें नाइट्रोजनी विकार तथा लवण की मात्रा कम होती है।
कार्यविधि - सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति, जिसका अपने शरीर का वृक्क कार्य नहीं करता, के शरीर का रक्त एक धमनी द्वारा निकालकर उसे 0°C तक ठंडा किया जाता है। अब इस रक्त को एक पंप की सहायता से डायलाइजर में भेजा जाता है। यहाँ रक्त से नाइट्रोजनी विकार विसरित होकर डायलिसिस फ्लूइड में चला जाता है। पुनः, इस रक्त को पंप की मदद से एक शिरा के द्वारा उस व्यक्ति के शरीर में वापस पहुँचा दिया जाता है। इस प्रकार कृत्रिम वृक्क से रक्त के शुद्धिकरण की यह विधि एक अत्यंत विकसित तकनीक है
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लैंगिक और अलैंगिक जनन में कोई पाँच अंतर लिखें।
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उत्तर - परागण के दौरान नर युग्मक और मादा युग्मक के संगलन को निषेचन कहते है। परागकणों के वर्तिकाग्र तक पहुँचने के बाद निषेचन की क्रिया होती है। इस क्रिया में परागकण वर्तिकाग्र की सतह से पोषक पदार्थ अवशोषित कर वृद्धि करता है। वर्तिकाग्र द्वारा स्त्रावित रसायन के प्रभाव से परागकण से परागनलिका निकलती है। परागनलिका के सिरे पर एक विशेष प्रकार का किण्वक (enzyme) निकलता है जो वर्तिकाग्र के ऊतकों को गला देता है, और नलिका आसानी से बढ़कर वर्तिका से होते हुए बीजांड में प्रवेश करती है, जहाँ परागनलिका से दो नर-युग्मक निकलते है, जिसमें एक बीजांड में अवस्थित मादा-युग्मक (अंडकोशिका) से संगलित होकर द्विगुणित (diploid) युग्मनज बनता है जो बाद में विकसित होकर भ्रूण का निर्माण करता है, तथा दूसरा द्विगुणित सेकेंडरी केंद्रक से संगलित होकर त्रिगुणित (triploid) भ्रूणपोष (endosperm) केंद्रक का निर्माण करता है। पौधों में पाए जानेवाले इस प्रकार के निषेचन को द्विनिषेचन (double fertilization) कहा जाता है। निषेचन के पश्चात भ्रूण बीजांड द्वारा एक कठोर, आवरण से घिरकर बीज में परिवर्तित हो जाता है एवं अंडाशय तीव्रता से वृद्धि कर परिपक्व होकर फल का निर्माण करता है।
उत्तर - मानव में बच्चों का लिंग-निर्धारण हेटेरोगेमेसिस के सिद्धांत के आधार पर लिंग-क्रोमोसोम के द्वारा होता है, जिसे आनुवंशिक विधि भी कहते हैं। मनुष्य में 23 जोड़े गुणसूत्र में 22 जोड़े (44) क्रोमोसोम को ऑटोसोम कहते हैं, जबकि 23वाँ जोड़ा लिंग-क्रोमोसोम कहलाता है। ये दो प्रकार के होते हैं - X एवं YI X-क्रोमोसोम लंबा एवं छड़ के आकार का होता है, जबकि Y क्रोमोसोम अपेक्षाकृत बहुत छोटे आकार का होता है। मनुष्य में नर में लिंग-क्रोमोसोम जोड़े X एवं Y प्रकार के होते हैं एवं मादा में XX प्रकार के होते हैं। अतः, नर दो प्रकार के गैमेट बनाते हैं-X एवं Y, जबकि मादा केवल एक प्रकार की गैमेट बनाती हैं, जिसमें केवल X-क्रोमोसोम होते हैं। इस प्रकार मानव नर हेटेरोगैमेटिक एवं मादा होमोगैमेटिक कहलाती है। चित्रानुसार X-क्रोमोसोम वाले नर युग्मक के मादा युग्मक से निषेचन के बाद बना युग्मनज (zygote) मादा बच्चे में विकसित होता है, और Y क्रोमोसोम वाला नर युग्मक मादा युग्मक से निषेचन के बाद नर बच्चे में विकसित होता है।
ऊतक संवर्धन क्या है ? यह कैसे संपन्न होता है ?
उत्तर -
चित्र वाला दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
Note : आसान और जल्दी चित्र कैसै बनाएँ, यह वर्ग में सिखाया जाएगा।